Sunday, February 21, 2010

अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा

आमतौर पर किसी भी देश के साहित्य-आंदोलन को उसकी तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों की देन माना जाता है। ठीक उसी तरह उसके साहित्य-रूपों का विकास उसके समाज के विकास से अनिवार्यतया जुड़ा होता है। इसलिए समाज की विभिन्न संरचनाओं के आधार पर साहित्य की संरचनाओं को पहचाना-परखा जाता है। यह अलग बात है कि समाज की संरचनाएँ जिस रूप में साहित्य की संरचनाओं के रूप में आकार ग्रहण करती हैं, ठीक उसी रूप में समाज में मौजूद नहीं रहती। इसलिए साहित्य में रूपातंरित होने पर समाज की उन संरचनाओं का स्वरूप बदल जाता है और एक साहित्यिक रचना सामाजिक शक्ति के रूप में काम करने लगती है। इसे ही साहित्य की सामाजिक उपयोगिता कहा जाता है जो अंततः साहित्य की सामाजिक सोद्देश्यता की माँग को पूरा करती है। इस तरह साहित्य की सोद्देश्यता मानव-समाज के विकास के व्यापक हित में समानांतर रूप से क्रियाशील रहती है।
इसलिए साहित्य और समाज के जटिलतर संबंधों को उनके द्वंद्वात्मक-संबंधों में व्याख्यायित करने की कोशिशें की जाती रही है। सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों को साहित्य के विकास की पूर्व-शर्त माना गया है। किसी समय के सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन उस वक्त के साहित्य-आंदोलन के विकास को प्रभावित करते हैं लेकिन कभी सीधे रूप में तो कभी अप्रत्यक्ष रूप में। यह प्रभाव कम या ज्यादा हो सकता है लेकिन बिल्कुल अछूता रहे; यह संभव नहीं है। अगर समाज साहित्य के केंद्र में रहता है तो साहित्य समाज की केंद्रीय धुरी है। इस नाते साहित्य और समाज में परस्पर गहरा संबंध होता है। इसलिए साहित्य समाज-निरपेक्ष न होकर समाज-सापेक्ष होता है। इसके साथ ही साहित्य और समाज के द्वंद्वात्मक संबंध उनके विकास की प्रक्रिया को निर्धारित करते हैं। जरूरी नहीं है कि विकास की यह प्रक्रिया सभी केंद्रों पर अवस्थित हो। इस प्रक्रिया में कुछ महत्त्वपूर्ण केंद्र पीछे छूट जाते हैं और कुछ महत्वहीन केंद्र सामने आ जाते हैं। यह सब समाज और साहित्य के संबंधों को देखने-परखने वाले की दृष्टि पर निर्भर करता है कि वह किन संस्थानिक केंद्रों को प्रमुख मानता है और किन्हें गौण समझता है। लेकिन इस सबके बावजूद यह सच है कि इन संस्थानिक केंद्रों को देखने-परखने की दृष्टि एक निश्चित विचारधारा के आधार पर बनती है जिसे उसकी वैचारिक-दृष्टि या वैचारिक प्रतिबद्धता भी कहा जाता है। इसी आधार पर कहा जाता है कि साहित्य विचारधारा-निरपेक्ष नहीं हो सकता। वैसे भी साहित्य और समाज के बीच जो लेखक नाम का प्राणी मौजूद रहता है, वह साहित्य और समाज के जटिलतर संबंधों और उनके बीच के अंतर्विरोधों को पहचान कर अपनी विचारधारा के आधार पर उन्हें व्याख्यायित करने की कोशिश करता है। इसलिए अन्य सामाजिक व्यक्तियों की अपेक्षा लेखक की समाज के प्रति जिम्मेदारी दोहरी-तिहरी हो जाती है जिसे एक लेखक की वैचारिक प्रतिबद्धता भी कहा जाता है। जो उसके न चाहते हुए भी उसके साहित्य में किसी-न-किसी रूप में मौजूद रहती है। रचना के स्तर पर अभिव्यक्त होने वाली लेखक की यह वैचारिक प्रतिबद्धता सामाजिक प्रतिबद्धता में तब्दील होकर एक ताकतवर हथियार बन जाती है।
लेखक किन संस्थानिक केंद्रों का विखंडन करना चाहता है और किनका समर्थन, यह उसकी वैचारिक-सामाजिक प्रतिबद्धता पर अधिक निर्भर करता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जाति और वर्ग विभाजित समाज में बुद्धिजीवी वर्ग भी इससे सर्वथा मुक्त नहीं रह सकता। खासतौर पर उच्चवर्गीय लेखक व्यक्ति तो अपनी जातिगत श्रेष्ठता के आधार पर कभी प्रत्यक्ष रूप से तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से जाति-व्यवस्था का दृढ़ता से पालन ही नहीं करता बल्कि इसका समर्थन भी करता दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में जाति-व्यवस्था के संस्थानिक केंद्र कमजोर होने के बजाय मजबूत होने लगते हैं। सामाजिक विकास को अवरुद्ध करने वाले ऐसे संस्थानिक केंद्रों पर हमला या विखंडन वही लेखक/व्यक्ति करेगा जो उससे सर्वाधिक उत्पीड़ित और शोषित होगा, यानि जो सामाजिक स्तर पर निचली पायदान पर खड़ा होगा। इसलिए कहा गया कि किसी भी देश के सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों के विकास में बुद्धिजीवी वर्ग की अहम भूमिका होती है। प्रश्न उठता है कि क्या भारत का बुद्धिजीवी वर्ग जातिगत चेतना से ऊपर उठकर सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों के विकास में कोई योगदान दे पाया है?
सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आंदोलनों के विकास में बुद्धिजीवी वर्ग की ऐतिहासिक भूमिका को स्वीकारते हुए डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट लिखा कि प्रत्येक देश में बुद्धिजीवी वर्ग सर्वाधिक प्रभावशाली वर्ग रहा है। क्योंकि वह दूरदर्शी और सलाह देने वाला और नेतृत्वकारी भूमिका में रहता है। क्रियाशील एवं विचारशील जीवन व्यतीत करने वाली अधिकांश जनता प्रायः ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग का अनुकरण और अनुगमन करती है और अन्ततः किसी भी देश का संपूर्ण भविष्य उसके बुद्धिजीवी वर्ग पर निर्भर करता है। इसलिए डॉ. अंबेडकर मानते थे कि यदि बुद्धिजीवी वर्ग ईमानदार, स्वतंत्र और निष्पक्ष है तो उस पर भरोसा किया जा सकता; इसलिए कि वह संकट की घड़ी में पहल करेगा और उचित नेतृत्व प्रदान करेगा। प्रश्न उठता है कि क्या भारत का बुद्धिजीवी वर्ग ईमानदार, स्वतंत्र और निष्पक्ष रहा है, जिसने जातिगत चेतना से मुक्त होकर अपने विचारों को विकसित किया है? स्पष्टतया इस प्रश्न का जवाब नकारात्मक ही होगा क्योंकि ‘भारत में बुद्धिजीवी वर्ग ब्राह्मण जाति का दूसरा नाम है।’ डॉ. अंबेडकर की दृष्टि में ब्राह्मण जाति का पर्याय है यानि ‘ये दोनों एक हैं।’1 इसलिए वह अपने आपको देश के हित के बजाय अपनी जाति के हितों और आकांक्षाओं का अभिरक्षणता समझता है। इस पर खेद प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा कि सच्चाई यह है कि ब्राह्मण लोग ही हिंदुओं का बुद्धिजीवी वर्ग है जिसका शेष हिंदू लोग बहुत आदर करते हैं। हिंदुओं को यह पढ़ाया जाता है कि ब्राह्मण भूदेव है-‘वर्णानाम् ब्राह्मणों गुरु’। ऐसी स्थितियों में शेष हिंदू समाज पर नियंत्रण रखने वाला ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग जाति-व्यवस्था उन्मूलन का समर्थन कैसे कर सकता है। दिखाने के लिए भले ही कर ले पर ईमानदारी से आज भी जाति-प्रथा का विरोध नहीं कर पा रहा है। यह उन्नीसवीं सदी के समाज-सुधार आंदोलनों के बारे में एक सच्चाई थी और आज भी सच्चाई बनी हुई। ब्राह्मण वर्ग आज भी पवित्रता और शुद्धता के मिथक में जी रहा है जैसे, सदियों पहले भी जी रहा था।
इसलिए डॉ. अंबेडकर ने भारत के समाज-सुधार आंदोलनों के चरित्र को दो स्तरों पर उद्घाटित किया है। एक, हिंदू परिवार के सुधार के अर्थ में समाज-सुधार और दूसरे, हिंदू समाज के पुनर्गठन तथा पुनर्निर्माण के अर्थों में समाज-सुधार। लेकिन यहां इन दोनों के मूलभूत अन्तर को भी ठीक समझना जरूरी है। पहले के समाज-सुधार का संबंध विधवा-विवाह, बाल-विवाह और सतीप्रथा आदि से था तो दूसरे प्रकार के समाज-सुधार का संबंध जाति-प्रथा-उन्मूलन से है। परन्तु ब्राह्मणवर्ग के समाजसुधारकों और बुद्धिजीवियों ने जाति-प्रथा-उन्मूलन में रुचि दिखाने के बजाय सवर्ण परिवारों की सामाजिक समस्याओं में सुधार लाने के लिए ही आंदोलन चलाया। इसलिए कहा जा सकता है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ब्राह्मण वर्ग के समाजसुधारकों और बुद्धिजीवियों का समाज-सुधार आंदोलन ब्राह्मण समाज की--विधवा-विवाह, बाल-विवाह और सतीप्रथा जैसी सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों तक ही सीमित था यानि वह ब्राह्मण परिवारों के सुधार के प्रश्नों पर केन्द्रित था। भारतीय समाज के सर्वाधिक उत्पीड़ित-उपेक्षित दलित-पिछड़े वर्ग की समस्याओं से कोई संबंध नहीं था। ऐसी स्थिति में उसे भारतीय नवजागरण न कहकर हिंदू नवजागरण कहना ज्यादा सही होगा। क्योंकि उसका मूल चरित्र हिंदू पुनरुत्थानवादी ही था और जो आज हिन्दुत्व के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में फलीभूत हो रहा है। उस समय हिंदू पुनरुत्थानवादियों ने जातिवाद और सांप्रदायिकता को ही समाज में उभारा था, जिससे जातिवाद और सांप्रदायिकता की जड़ें भारतीय समाज में गहरे स्तर तक जम गईं और समाज-सुधार का आंदोलन कहीं पीछे खिसक गया था।
एक तरफ ब्राह्मण समुदाय के बुद्धिजीवियों का हिंदू पुनरुत्थानवादी आंदोलन जातिवाद और सांप्रदायिकता को उभारने में मदद कर रहा था तो दूसरी तरफ क्रान्तिकारी जोतिबा फुले का दलित पुनर्जागरण जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष करके संपूर्ण मानव समाज के कल्याण के लिए कटिबद्ध था। राजाराममोहन राय का ‘ब्रह्म समाज’ हो या दयानन्द का ‘आर्यसमाज’, इन दोनों में समाज-सुधार की भावना के बावजूद हिंदू पुनरुत्थानवाद के बीज सबसे ज्यादा मौजूद थे जबकि जोतिबा फुले के ‘सत्यशोधक समाज’ में समाज के सभी समुदायों के लिए दरवाजे खुले हुए थे। ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना बहुजन समाज की अवधारणा के आधार पर की गई थी जिसमें जाति, लिंग और धर्म के आधार पर भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं थी। इसलिए जोतिबा फुले का जीवनदर्शन और समाज-जातिविहीन धर्मनिरपेक्ष समाज के निर्माण की संकल्पना पर केन्द्रित था। इसलिए उनकी किताब ‘गुलामगिरी’ को आधुनिक युग में दलित-मुक्ति का दस्तावेज़ कहा जा सकता है। हालांकि पहला दलित जनजागरण बुद्ध के समय में हुआ था जिसने ब्राह्मणवादी वर्ण-व्यवस्था की जड़ें खोदने वाले दलित-पिछड़े वर्ग को नई चेतना और नये सामाजिक-दर्शन से लैस कर दिया था जो लंबे विकास-क्रम के दौरान नाथ-सिद्धों से होते हुए कबीर आदि दलित संतों तक पहुंचा था। दलित-पुनर्जागरण की इस लंबी परंपरा को जोतिबा फुले ने आधुनिक युग में विकसित किया है जो डॉ. अंबेडकर के चिंतन से होते हुए आज के दलित-चिंतन तक पहुंचती है। यह अकारण नहीं है कि डॉ. अंबेडकर ने बुद्ध, कबीर और जोतिबा फुले को अपना गुरु मानकर दलित-चिंतन की परंपरा को ही पुष्ट किया है जिसकी ठोस ज़मीन पर आज का दलित-लेखन विकसित हुआ है और जिसे आज हम अंबेडकरवादी लेखन या अंबेडकरवादी साहित्य कहना चाहते हैं। दलित-चिंतन और दलित-लेखन की यह लंबी परंपरा ब्राह्मणवादी-चिंतन के समानांतर विकसित हुई है। इसलिए जो विद्वान यह कहते हैं कि दलितों की यानि दलित-चिंतन की कोई परंपरा नहीं है; वे अपनी हिंदू मानसिकता का ही परिचय देते हैं। क्योंकि उनका हिंदूवादी-चिंतन उन्हें किसी अन्य परंपरा को देखने की इज़ाजत नहीं देता। उनकी सोच का दायरा इतना संकुचित है कि वे अपने आसपास की चीजों को भी नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसा वे अनजाने में नहीं, जानबूझकर करते हैं। यहां हमारा इशारा नए-नए दलितों के मसीहा बने आदरणीय राजेन्द्र यादव जी (कुछ दलित साहित्यकारों के परम् आदरणीय भी) की ओर है जो अपने इन्टरव्यूज और भाषणों में दलितों को यह बताना नहीं भूलते कि दलितों और उसके चिंतन की कोई परंपरा नहीं है और ले-देकर भक्तिकाल के कबीर-रैदास ही उनके पास हैं। शायद उन्हें यह नहीं मालूम कि परंपरा केवल अतीत की चीज नहीं होती है, वह अपने प्रगतिशील तत्वों के साथ वर्तमान में भी जीवित रहती है और भविष्य के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाकर अपनी निरंतरता बनाए रखती है। इस तरह परंपरा का संबंध केवल अतीत से ही नहीं होता, वर्तमान से भी होता है जिसके आधार पर समाज के भविष्य का निर्माण संभव हुआ है। इसीलिए प्रत्येक देश और उसका समाज अपनी सांस्कृतिक परंपरा का मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन करता रहा है। सांस्कृतिक मूल्यांकन की इसी प्रक्रिया में प्रतिक्रियावादी तत्वों की छांट हो जाती है और प्रगतिशील तत्व बने रहते हैं।
इसलिए किसी भी समाज की सांस्कृतिक परंपरा को देखने की सम्यक् दृष्टि चाहिए और वह दृष्टि कम से कम राजेन्द्र यादव जी के हिंदूवादी-चिंतन में नज़र नहीं आती। यहां आपको हिंदूवादी इसलिए कहा जा रहा है कि‘हंस’ के संपादकीयों में आप हिंदूवादियों के वकील बनकर दलितों को कटघरे में खड़ा करके उनसे एक हिंदू की तरह ज़िरह करते नज़र आते हैं। आप कई बार कह चुके हैं कि ‘हम सवर्णों’ और सवर्ण एक हिंदू ही होता है, को दलितों का प्रवक्ता नहीं बनना चाहिए, इसके बावजूद आप हर बार गाहे-बगाहे दलितों के प्रवक्ता बनकर सामने आते हैं। यह कैसी विडंबना है कि आप अपने संपादकीयों में हिंदू-प्रवक्ता के रूप में सामने आते हैं और दलितों के मंच पर दलित के प्रवक्ता बन जाते हैं। फिर भी इस कथन में कोई शक नज़र आ रहा है तो आप अपने संपादकीयों को दुबारा पढ़कर देख लीजिए, शक दूर हो जाएगा।
आपका यह चिन्तन ‘निजद्वैतवाद’ पर आधारित हिंदू-दर्शन है। आप जैसे विद्वानों के लिए ही डॉ. अंबेडकर ने ‘निजद्वैतवाद’ पद का ही इस्तेमाल किया है। यह एक हिंदू का ‘निजद्वैतवाद’ है जिसमें एक हिंदू दोहरी मानसिकता में जीता-मरता है। दोहरा जीवन-चरित्र हिंदुओं की विशेषता है। इस अर्थ में आप हिंदूवादी हो जाते हैं और आप उदार हिंदू हैं या कट्टर, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हिंदुओं का उदारतावाद भी एक छदम् ही है। इसी अर्थ में आपका चिन्तन ‘निजद्वैतवादी’ है और निजद्वैतवादी, अंततः पृथकतावादी होता है। क्योंकि ‘निजद्वैतवादी’दर्शन का आधार जाति-प्रथा है और जाति-प्रथा सामाजिक-विभाजन को बढ़ाते वाली प्रथा या प्रणाली है और जो अंततः समाज में पृथकतावाद को ही जन्म देती है जिससे हिन्दुत्व के दर्शन की उत्पत्ति हुई है। इस तरह‘निजद्वैतवाद’ हिंदू समाज का मूल दर्शन है जो आप जैसे अनेक हिंदुओं के दिलो-दिमाग में घर बनाए हुए है। हमेशा से ही आप अपने को एक ‘हिंदू’ (सवर्ण) के रूप में देखने के आदी हो चुके हैं। इसलिए आप न तो ठीक ढंग से ही दलित-चिंतन की परंपरा को देख पा रहे हैं और न उसकी निरंतरता को ही। क्योंकि निरंतरता में ही किसी देश के साहित्य और समाज के चिंतन की परंपरा के विकास की संभावना निहित होती है। दलित-चिंतन और लेखन में वह निरंतरता मौजूद है जिसे उसके ऐतिहासिक विकासक्रम में ही देखा जाना चाहिए पर आपका हिंदूवादी-चिंतन उसे देख नहीं पा रहा है।
इस तरह ‘निजद्वैतवाद’ हिन्दुत्व के समाज-दर्शन का मूल आधार है जिसकी नींव पर जाति-प्रथा खड़ी हुई है जिससे सामाजिक-अलगाव की प्रक्रिया निरंतर तेज हुई है। इसके साथ-साथ सामाजिक-संबंधों में वैमनस्य और कटुता तथा छुआछूत और असमानता की भावना इस कदर बढ़ी है कि मनुष्य-मनुष्य से नफरत करने लगा। इसलिए आज भी जाति-प्रथा भारतीय सामाजिक-आर्थिक संरचना का मूलाधार बनी हुई है जिसके खात्मे के लिए जोतिबा फुले, पेरियार और स्वामी अछूतानंद आदि एक बड़ा सामाजिक आंदोलन खड़ा कर चुके हैं। लेकिन डॉ. अंबेडकर ने जाति-प्रथा पर वैज्ञानिक-चिंतन द्वारा शोध करके दलित-चिंतन को नया आयाम दे दिया जिससे जाति-प्रथा की उत्पत्ति संबंधी सभी निष्कर्षों पर प्रश्नचिद्द लग गया है। सन् 1916 में ‘भारत में जाति-प्रथा: संरचना उत्पत्ति और विकास’ नामक शोध लेख, 1936 में ‘जाति-प्रथा-उन्मूलन’ संबंधी महत्त्वपूर्ण लेख जो भाषण के रूप में लिखा गया था, से लेकर बौद्धधम्म की नई व्याख्या करने वाले ‘बुद्ध और उनका धम्म’ आदि महत्त्वपूर्ण ग्रंथ में डॉ. अंबेडकर के वैज्ञानिक-चिंतन के विकासक्रम को देखा जा सकता है जिससे अंबेडकरवादी-चिंतन की शुरुआत मानी जा सकती है और जिसे अब हम अंबेडकरवाद के नाम से भी जानते हैं। अपनी शुरुआत में ही अंबेडकरवाद को गांधीवाद और हिंदूवाद जैसे सुधारवादी और कट्टरपंथी विचारधाराओं से सीधे-सीधे टकराकर विकास की ओर अग्रसर हुआ है।
अंबेडकरवाद वैज्ञानिक-चिंतन की धुरी पर आगे बढ़ा है। अंबेडकरवाद से दलित समाज और हमारा लेखन पे्ररणा लेता है। अंबेडकरवाद का अर्थ है एक ऐसी विचारधारा जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुता जैसे जनवादी-लोकतांत्रिक मूल्यों पर विकसित होती हं। अर्थात् डॉ. अंबेडकर के वैज्ञानिक-चिंतन और उनके समाज दर्शन के आधार पर अंबेडकरवादी विचारधारा विकसित हुई है। दलित-लेखन से जिस विशिष्ट लेखन का बोध होता रहा है,उसका आधार अंबेडकरवादी विचारधारा ही है। अंबेडकरवादी विचारधारा के आधार पर ही हमारा लेखन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी अलग और विशिष्ट पहचान बनाने में सफल रहा है। अंबेडकरवादी विचारधारा के आधार पर ही हमारा चिंतन और दलित-लेखन तथाकथित मुख्यधारा के हिंदूवादी साहित्य से अलग हो जाता है। हालांकि अलग होने की यह प्रक्रिया सन् 20, में ही शुरू हो गई थी जब कोल्हापुर के छत्रपति शाहू जी महाराज की2500/- रुपए की एकमुश्त आर्थिक सहायता से डॉ. अंबेडकर के संपादन में ‘मूकनायक’ का प्रवेशांक निकला हुआ। इसलिए कुछ विद्वान ‘मूकनायक’ के प्रकाशन से ही अंबेडकरवादी आंदोलन की शुरुआत मानते हैं। हालांकि इससे पहले हिन्दी क्षेत्र में स्वामी अछूतानन्द ‘आदि हिंदू’ पत्र द्वारा अपने विचारों को दलित समाज में फैला रहे थे। यह अलग बात है कि उस समय वे आर्यसमाजी विचारों से प्रभावित थे लेकिन शीघ्र ही वे आर्यसमाज के विचारों के प्रभाव से मुक्त होकर दलितों की सामाजिक मुक्ति का रास्ता तलाशने लगे थे। शीघ्र ही उनका संपर्क डॉ. अंबेडकर से हुआ तो उनके विचारों में सुसंगतता आ गई। इसलिए अंबेडकरवारी आंदोलन में स्वामी अछूतानंद के योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता।
यह वही समय था जब ‘डिपे्रस्ड कलासिज लीग’ की पहली परिषद् के पहले दिन की कार्यवाही की अध्यक्षता करते हुए डॉ. अंबेडकर ने वहां मौजूद विशाल जनसमूह में अपनी उन्नति के प्रति अभूतपूर्व उत्साह देखते हुए उन्हें अपने क्रान्तिकारी विचारों से अवगत कराया था जो दक्षिण महाराष्ट्र के माणा गांव के ‘कागल’ स्थान पर 21, 22 मार्च 1920 को संपन्न हुई थी। उन्होंने विशाल जनसमूह को समझाया कि हमारी दुर्दशा का कारण निश्चित तौर पर ईश्वर नहीं है। यह अन्य लोगों द्वारा उन पर किये जा रहे अत्याचारों का परिणाम है। उन्होंने ब्राह्मणों के पवित्रता और शुद्धता के मिथक का विखंडन करते हुए स्पष्टतया बताया कि जन्म से ही कोई कनिष्ठ या अपवित्र नहीं होता लेकिन जाति-प्रथा ने जन्माधारित श्रेष्ठता को ही एकमात्र मानदंड बनाकर अयोग्य ब्राह्मणों को श्रेष्ठ और योग्य शूद्र को उस श्रेष्ठता से वंचित कर दिया। इस असमानता और विषमता का कारण जाति-प्रथा ही है जो दलित-पिछड़े वर्ग के लोगों को शिक्षा-अध्ययन और धन-प्राप्ति के साधनों से वंचित कर उनकी प्रगति और उन्नति के सभी रास्ते बंद कर देती है। इसलिए उन्होंने इस देश को विषमताओं का मायका बताया था सन् 20 का दशक इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण दशक है क्योंकि इसमें डॉ. अंबेडकर के अथक प्रयासों से इस आंदोलन में सामाजिक अधिकारों के साथ-साथ राजनीतिक अधिकारों की मांग को भी विभिन्न मंचों और संस्थाओं के अधिवेशनों में उठाया जाने लगा था जिससे दलित-पिछड़े वर्ग में सामाजिक चेतना के साथ राजनीतिक चेतना का भी विकास संभव हो सके। उन्होंने राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए एक केंद्रीय संगठन बनाने पर भी ज़ोर दिया लेकिन दलितों की मुक्ति केवल राजनीतिक सत्ता-प्राप्त करने से ही नहीं जाएगी इसलिए उनकी संपूर्ण मुक्ति का सारतत्व सामाजिक उत्थान में है। उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा कि आप मौन रहकर सरकार या सुधारकों को दोषी ठहराकर, आप अपने दायित्वों से बच नहीं सकते हैं। इसलिए उसका एकमात्र साधन आंदोलन ही है। उन्हें उम्मीद थी कि उनका आंदोलन दलित-पिछड़े वर्ग के लोगों के उत्थान में अवश्य परिणत होगा और इस देश में एक ऐसे समाज की स्थापना करने में सहायक होगा जहां प्रत्येक आदमी का मूल्य जीवन के सभी क्षेत्रों अर्थात राजनीतिक सामाजिक एवं आर्थिक में एक समान होगा। इसलिए उन्होंने दलितों को आत्मसम्मान से जीने के लिए आंदोलन पर अत्यधिक ज़ोर दिया कि तुम्हें अपनी दासता अपने आप मिटानी चाहिए। आत्मसम्मान खोकर जीना अपमानजनक है। आत्मसम्मान जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण चीज है। आत्मसम्मान से जीने के लिए आदमी को कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करनी होती है। उन्होंने गुलामी के उस वैचारिक मिथक को तोड़ते हुए कहा कि हम दास नहीं हैं, हम बहादुर जाति के लोग हैं और किसी बहादुर आदमी के लिए इससे अधिक अपमान नहीं हो सकता कि वह आत्मसम्मान और देशपे्रम के बिना ही जिए।
अंबेडकरवाद दलित-पिछड़े वर्ग में आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भावना जगाता है जिसे दलित समाज की सामाजिक-अस्मिता भी कहा जा सकता है। इस तरह अंबेडकरवाद मूलतः मानवतावादी अवधारणा पर आधारित है। वह केवल दलित-पिछड़े वर्ग के लोगों की ही मुक्ति नहीं चाहता बल्कि समस्त मानव समाज की सभी तरह के शोषण-उत्पीड़न से भी मुक्ति का रास्ता तलाशता है। अंबेडकरवाद श्रमिक वर्ग के नेतृत्व में सामाजिक-क्रान्ति की संकल्पना प्रस्तुत करके अंतर्राष्ट्रीयवाद की अवधारणा को भी एक मजबूत आधार प्रदान करता है। अंबेडकरवाद सामाजिक-लोकतंत्र में विश्वास करता है जिसे संवैधानिक तरीकों से ही प्राप्त किया जा सकता है। अंबेडकरवाद सम्यक परिवर्तन पर ज़ोर देता है यानि वह पूर्णतः सामाजिक परिवर्तन चाहता है। अंबेडकरवाद एक समान रूप से ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को दलित-पिछड़े वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन मानता है। अंबेडकरवारद संपूर्ण मानव समाज के लिए उन मूल्यों को स्थापित करना चाहता है जो समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित हों। इसलिए उसमें मानव-कल्याण की भावना सर्वोपरि है। वह यह भी मानता है कि समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व में ही व्यक्ति-स्वातंत्रय की भावना निहित है। एक व्यक्ति एक मूल्य, सामाजिक लोकतंत्र का आधारबिन्दु है। इसलिए वह शब्द-प्रमाण और ग्रंथ-प्रमाण की अवधारणा को अस्वीकार करता है। इस तरह अंबेडकरवाद डॉ. अंबेडकर के विचारों का समुच्चय है।
इसलिए अंबेडकरवाद को सिर्फ़ जाति-प्रथा-उन्मूलन तक ही सीमित नहीं कर के नहीं देखना चाहिए क्योंकि अंबेडकरवाद एक ऐसा सामाजिक-दर्शन है जो समस्त शोषित-उत्पीड़ित और उपेक्षित मानव की मुक्ति के लिए प्रयत्न करता है। भारत के संदर्भ में यह सही है कि जाति भारतीय समाज-सरंचना का प्रमुख कारक है जिसका खात्मा किए बिना दलित-पिछड़े वर्ग सहित समस्त शोषित-उत्पीड़ित समाज के लोगों की मुक्ति असंभव है। जाति-प्रथा के रहते देश और समाज की आर्थिक-सामाजिक उन्नति सम्भव नहीं है तथा समता, बंधुत्व और स्वतंत्रता की स्थापना भी नहीं हो सकती। हिंदू धर्म-दर्शन का ‘निजद्वैतवाद’ पृथकवादी जातिप्रथा के विधान को मजबूत आधार प्रदान करता है जिससे पृथकतावादी नए सिद्धांत का जन्म हुआ जो ब्राह्मणों का अनूठा सिद्धांत है। इसलिए डॉ. अंबेडकर को कहना पड़ा था कि भारतीय समाज एक अलोकतांत्रिक समाज है जिसमें समानता की अवधारणा के लिए कोई जगह नहीं है। लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए जरूरी है कि इस देश में ‘जाति-प्रथा’ का उन्मूलन कर दिया जाए।
इसलिए डॉ. अंबेडकर ने आरंभिक दौर में ही अपने चिंतन को जाति-प्रथा की संरचना, उत्पत्ति और विकास के अध्ययन पर केन्द्रित करके दलितों की मुक्ति के लिए नई संभावना तलाश ली थीं। उन्होंने अपने वैज्ञानिक-चिंतन से जाति के मिथक को छिन्न-भिन्न कर दिया। एक तरह से उन्होंने जाति-उत्पत्ति संबंधी खोजों के निष्कर्मों को एक सिरे से खारिज़ कर दिया। डॉ. अंबेडकर ने अपने वैज्ञानिक-चिंतन और व्यापक सामाजिक अध्ययन-मनन के आधार पर जाति की उत्पत्ति के इस सिद्धांत को खारिज़ कर दिया जिसमें बताया गया था कि पेशेगत व्यवसाय,रंगभेद और शुद्धता और पवित्रता ही उसका मूल कारण है। उन्होंने भारतीय समाज के हिंदूवादी रिवाजों को अध्ययन का आधार बिन्दु बनाकर सिद्ध किया कि आधुनिक समाज आज भी सतीप्रथा, आजीवन विधवा-अवस्था और बालिका-विवाह, विधवा स्त्राी और विधुर पुरुष आदि इन सामाजिक समस्याओं का समाधान इसलिए नहीं खोज पाया कि उसका आधार जाति-प्रथा और सजातीय विवाह-प्रथा ही है। इसलिए सजातीय विवाह-प्रथा को बनाए रखने के लिए इन रिवाजों की जरूरत थी क्योंकि सजातीय विवाह-प्रथा के ढहते ही जाति-प्रथा भी ढह जाएगी। उन्होंने अपने अंतिम निष्कर्ष में स्पष्ट कहा कि ‘सजातीय विवाह ही जातपात का एकमात्र कारण है’ और जाति के मूल उत्स को भी सजातीय विवाह-प्रथा की क्रियाविधि में गिना जाना चाहिए। इसी आधार पर उन्होंने यूरोपीय विद्वानों के इस सिद्धांत को भी खारिज़ कर दिया कि जाति-प्रथा रंग के आधार पर बनाई गई है। क्योंकि रंगभेद का सिद्धांत मूल रूप से नस्लवादी सिद्धांत पर आधारित है। इस तरह डॉ. अंबेडकर जाति-प्रथा के रंगभेद के सिद्धांत को नकार कर यूरोपीय विद्वानों के नस्लभेद के सिद्धांत को भी एक सिरे से खारिज़ कर देते हैं। जबकि हिंदू (ब्राह्मण) अभी भी सजातीय विवाह से ही चिपका हुआ है। हालांकि राजा राममोहन राय, विद्यासागर, रानाडे और दयानन्द सरस्वती जैसे हिंदू समाज-सुधारवादी भी सतीप्रथा, विधवा-विवाह, बाल-विवाह तथा विधुर-विवाह आदि सामाजिक समस्याओं का समाधान सजातीय विवाह-प्रथा में ही खोज रहे थे, इसलिए उनका समाज-सुधार आंदोलन उनके समय में ही असफल सिद्ध हो गया था जबकि उसी दौरान ‘सत्यशोधक समाज’ के संस्थापक जोतिबा फुले इन सामाजिक बुराइयों का समाधान अंतर्जातीय विवाह में खोज रहे थे और ब्राह्मणी विधवाओं के विवाह की व्यवस्था इसी आधार पर कर रहे थे। डॉ. अंबेडकर ने अपने वैज्ञानिक-चिंतन के आधार पर इन सामाजिक रूढ़िवादी प्रथाओं का समाधान जोतिबा फुले की तरह ही अंतर्जातीय भोज और अंतर्जातीय विवाह में खोजकर दलित-चिंतन की परंपरा को विकसित किया है। आज के हमारे साहित्यकारों ने भी अंबेडकरवादी चिंतन की परंपरा को आत्मसात करके उसे अपने साहित्य का आधार बनाया है। इसलिए हमारे इस साहित्य को अंबेडकरवादी विचारधारा से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए।
डॉ. अंबेडकर जाति-प्रथा के उन्मूलन का सिद्धांत इसलिए खोज पाए थे कि उन्होंने बुद्ध की सम्यक् दृष्टि को सही रूप में अपनाया था। बुद्ध की ‘सम्यक् दृष्टि’ को आज कुछ विद्वान ‘समग्र दृष्टि’ भी कहते हैं। यह सम्यक् दृष्टि ही वर्गीय दृष्टि है जिससे डॉ. अंबेडकर ने समाज का वर्णीय आधार पर अध्ययन-विश्लेषण करके यह निष्कर्ष निकाला कि समाज वर्गों से मिलकर बनता है। इसमें वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत पर ज़ोर देना अतिशयोक्ति हो सकती है परन्तु यह सच है कि समाज में कुछ निश्चित वर्ग होते हैं। आधार भिन्न हो सकते हैं। ये वर्ग आर्थिक, आध्यात्मिक या सामाजिक हो सकते हैं। अंतिम निष्कर्षों में समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी वर्ग से सम्बद्ध होता है। यहां डॉ. अंबेडकर की वर्गीय दृष्टि (सम्यक् दृष्टि) को नकारने वाले कुछ अंबेडकरवादी और मार्क्सवादियों को डॉ. अंबेडकर के उस कथन पर ग़ौर करना चाहिए कि जो उन्होंने ‘हिन्दुत्व के दर्शन’ नामक ग्रंथ में भारतीय समाज-व्यवस्था के विकास का अध्ययन करके कहे थे कि संभवतः वर्तमान हिंदू मार्क्सवाद के घोर विरोधी हैं। इसका कारण उन्होंने‘मार्क्स’ के ‘वर्ग सिद्धांत’ को बताया जिससे हिंदू भयभीत रहते हैं क्योंकि ‘भारत न केवल वर्ग-संघर्ष बल्कि वर्ग-युद्ध की भूमि बन चुका है।’ हजारों साल से समाज में चल रहे इस वर्ग-संघर्ष यानि वर्ग-युद्ध को जाति-प्रथा ने रोक रखा है जिसकी ओर मार्क्स ने भी बहुत पहले इशारा कर दिया था कि भारत की तरक्की और ताकत के बढ़ने के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट भारत की वर्ण-व्यवस्था बनी हुई है।’2 मार्क्स और डॉ. अंबेडकर दोनों ने भारत की सामाजिक-आर्थिक उत्पत्ति और ताकत के लिए वर्ण-व्यवस्था यानि जाति-प्रथा का खात्मा चाहते थे।
इसलिए डॉ. अंबेडकर ने भारतीय समाज की संरचना का अध्ययन-विश्लेषण सामाजिक-आर्थिक संरचना के आधार पर किया था कि भारत की अछूत समस्या वर्ग-संघर्ष की समस्या है। जाति को भारतीय जाति-प्रथा का मूलाधार मानते हुए भी उसके वर्गीय चरित्र को अपने चिंतन से अलग नहीं किया था। इसलिए डॉ. अंबेडकर ने द्वंद्वात्मक चिंतन से है जो एक वैज्ञानिक-चिंतन-पद्धति है; बताया कि ‘‘वर्ग और जाति एक-दूसरे के दो रूप हैं। फ़र्क सिर्फ़ यह है कि जाति अपने को सजातीय परिधि में रखने वाला वर्ग है।’’3 इसी बिन्दु पर आकर डॉ. अंबेडकर ने वर्ग के जाति में परिणत होने की प्रक्रिया पर विचार करते हुए निष्कर्ष निकाला कि सजातीय विवाह के कारण ही वर्ग वर्ण में तब्दील होते चले गए। धीरे-धीरे वर्ण-व्यवस्था ने जाति-प्रथा का विनाशकारी रूप धारण कर लिया। निश्चित रूप से इसकी शुरुआत ब्राह्मण वर्ग ने अपने वर्ग हितों को ध्यान में रखकर की थी जो धीरे-धीरे ‘‘ग़ैर-ब्राह्मण वर्गों अथवा अन्य जातियों ने भी बढ़-चढ़कर इसकी नकल की और वे सजातीय विवाह-प्रथा को अपनाने लगे।’’4 निश्चित रूप दलित-पिछड़ा वर्ग भी इस जाति-प्रथा से अछूता नहीं रहा है लेकिन अंबेडकरवादी साहित्य आंदोलन के प्रभाव के कारण ही उन्होंने इस जाति-प्रथा पर प्रहार करते हुए अंतर्जातीय विवाह पर ज़ोर दिया है। निश्चित तौर पर जाति-प्रथा के उन्मूलन एकमात्र समाधान अंतर-जातीय विवाह ही है जिससे जाति-प्रथा के प्रमुख सामाजिक-संस्थानों का विखंडन संभव हो सकता है।
डॉ. अंबेडकर ने अपनी सम्यक् दृष्टि के द्वारा ब्राह्मणवर्ग के जातिशास्त्र के उस सिद्धांत का विखंडन कर दिया जिसके आधार पर ब्राह्मण वर्ग अपनी श्रेष्ठता, शुद्धता और पवित्रता का दावा पेश करता रहा है और जो अंततः शुद्ध आर्य-नस्ल के सिद्धांत पर टिका हुआ था जिसे आज का हिंदू (आर्य-नस्ल) लगभग त्याग चुका है। क्योंकि समाज-वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि भारत में आर्य बाहर से आए थे। नृजाति वैज्ञानिकों ने प्रजाति की शुद्धता और रक्त की शुद्धता के सिद्धांत का खंडन करते हुए बताया कि विशुद्ध प्रजाति के लोगों कहीं नहीं है और संसार के भागों में सभी जातियों का मिश्रण है। डॉ. अंबेडकर ने अपने तर्क में डी.आर. भंडारकर के उस कथन को उद्धृत करते हुए लिखा है कि भारत में शायद ही कोई ऐसा वर्ग या जाति होगी, जिसमें विदेशी वंश का मिश्रण न हो। न केवल राजपूत और मराठा जैसी योद्धा जातियों में विदेशी रक्त का मिश्रण है बल्कि ब्राह्मणों में भी है, जो इस सुखद भ्रान्ति में हैं कि वे सभी विदेशी तत्वों से मुक्त हैं। इस आधार पर डॉ. अंबेडकर ने निष्कर्ष निकाला कि ‘‘जाति-प्रथा का जन्म भारत की विभिन्न प्रजातियों के रक्त और संस्कृति के आपस में मिलने के बहुत बाद में हुआ।’’5 अभी हाल में ही यूनान विश्वविद्यालय के मानववंशानुविद बामशाद के नेतृत्व में भारत और अमेरिका के 18 जेनेटिक इंजीनियरों के एक दल ने सिद्ध किया है कि भारत के तीखे नाक, ऊंचे कद और गोरे रंग वाले ब्राह्मण एवं ऊंची जाति के लोगों के पुरखे काकेसिपाई मूल के हैं। अर्थात वे भारतीय माताओं और काकेसिपाई पिताओं की संतानें हैं। इसके बावजूद ब्राह्मण वर्ग (हिंदू) अपनी श्रेष्ठता, शुद्धता और पवित्रता का दावा पेश करता है तो वह उसकी हठधर्मिता ही नहीं कही जाएगी बल्कि मूर्खता भी कही जाएगी।
जिस तरह ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता, शुद्धता और पवित्रता एक मिथक है, ठीक उसी प्रकार उसकी ‘हिंदू समाज’ की अवधारणा भी एक मिथक ही है। डॉ. अंबेडकर ने इस हिंदू समाज के मिथक का विखंडन करते हुए लिखा कि हिंदू नाम स्वयं विदेशी नाम है और मुसलमानों ने अपने को भारतवासियों से अलग करने के लिए यह नाम दिया है। अपने अंतिम निष्कर्ष में उन्होंने कहा कि ‘वस्तुतः हिंदू समाज नामक कोई वस्तु है ही नहीं। यह अनेक जातियों का समवेत रूप है।’ 8 श्रेष्ठता, शुद्धता और पवित्रता तथा हिंदू समाज आदि मिथकों के आधार पर ब्राह्मण वर्ग ने जिस जातिशास्त्र का निर्माण किया है, उसका मूलाधार वर्ण-व्यवस्था है और वर्ण-व्यवस्था जाति-प्रथा को सामाजिक-संरचना का अनिवार्य अंग बनाकर ब्राह्मणवाद को सैद्धांतिक आधार प्रदान कर देती है। इस तरह ब्राह्मणवाद हिन्दुत्व की मुख्य विचारधारा बन जाती है। अंबेडकरवाद ब्राह्मणवाद का विखंडन करके जातिशास्त्र का विखंडन कर देता है, दूसरे रूप में ब्राह्मणवाद का विखंडन मूलतः हिन्दुत्व के जातिशास्त्र का ही विखंडन है। इस तरह अंबेडकरवाद जातिशास्त्र का विखंडन करके नये समाजशास्त्रा के निर्माण की आधारशिला रख देता है जिसे अंबेडकरवादी समाजशास्त्रा कहा जा सकता है। इसलिए हमारे साहित्य का आधार यही अंबेडकरवादी समाजशास्त्रा है जो हिन्दुत्व के जातिशास्त्र का विखंडन करके ब्राह्मणवाद का भी विखंडन कर देता है जिससे जातिविहीन वर्गविहीन समाज के निर्माण का रास्ता प्रशस्त होता है।
मौजूदा भारतीय समाज-संरचना में जाति और वर्ग के अस्तित्व ने इस द्वंद्व को और बढ़ा दिया है, बावजूद जाति ही निर्धारक तत्व रही हैं। इसलिए भारत में जाति के आधार पर ही सामाजिक-अस्मिताएं और व्यक्तित्व की पहचान बनती है। हिन्दुत्व का जातिशास्त्र विभिन्न संस्थानिक केंद्रों के द्वारा जाति-प्रथा को ही मजबूत करता रहा है और आज भी कमोबेश रूप में कर ही रहा है। खुद दलित समाज भी विभिन्न समूहों, समुदायों और उपवर्गों में विभाजित है। ऐसी स्थिति में अंबेडकरवाद को मानने के बावजूद दलित-चिंतन का एक दिशा में जाना मुश्किल लग रहा है। वह भी ब्राह्मणवादी अवशेष के रूप में मौजूद जातिगत चेतना से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाया है। हिंदुओं की वर्ण-व्यवस्था से बाहर होते हुए भी वह जाति की सीमाओं को तोड़ नहीं पाया है। हालांकि अंबेडकरवादी विचारधारा ने उसकी जातिगत चेतना को तोड़ने में अहम् भूमिका निभाई है फिर भी वह यदा कदा उसमें उलझ ही जाता है। इससे अंबेडकरवादी-चिंतन के रूप में दलित चिंतन को गहरा आघात लग सकता है।
पिछले डेढ़ दशक में दक्षिणपंथी ताकतों के राजनीतिक ध्रुवीकरण के उफान ने जातिवाद और सांप्रदायिकता को और बढ़ा दिया है। वैसे भी जातिवाद और सांप्रदायिकता का चोली-दामन का साथ है। दक्षिणपंथी राजनीतिक धु्रवीकरण में माहिर भाजपा अपने सांप्रदायिक सहयोगियों की बदौलत राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने के बाद जिस तरह हिन्दुत्व की राजनीति को बढ़ावा दिया था जो इस वक्त सत्ता से बाहर हो गई है; उससे जातिवाद और सांप्रदायिकता का खतरा कम नहीं हो जाता है उसके खिलाफ संघर्ष अब भी उतना ही जरूरी है जितना पहले था। अंतर यह है कि भाजपा और उसके आर.एस.एस. का हिंदू राष्ट्रवाद अब भगवा चैला पहनकर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ में तब्दील हो गया है। हिंदू राष्ट्रवाद की तरह ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार भी जातिवाद और सांप्रदायिकता ही है जिसका असर धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक विचारधारा में विश्वास करने वाले बुद्धिजीवी वर्ग के एक हिस्से पर अब भी साफ-साफ दिखाई दे रहा है। यह भाजपा और उसके वैचारिक आधार को मजबूत करने वाली हिंदूवादी संस्था आर.एस.एस. की सांप्रदायिक रणनीति का ही असर है कि वे दलित-पिछड़े वर्ग के साथ-साथ आदिवासियों तक के एक हिस्से का हिंदूकरण करने में सफल रहे हैं।
दूसरी तरफ दलित राजनीति ने सत्ता में आने के लिए अपनी रणनीति के तहत ‘जाति चेतना का राजनीतिकरण’ करके दलित समाज के अंतर्विरोधों को और बढ़ा दिया है। यह सही है कि विभिन्न दलों की चुनाव की राजनीति जातिगत रणनीति के तहत ही बनती रही है। यह कोई नई बात नहीं है। आज़ादी के पिछले 57 सालों में दक्षिणपंथी दलों सहित लोकतांत्रिक प्रक्रियां में विश्वास करने वाली पार्टियों ने भी जाति की राजनीति को आधार बनाया है। आज यह काम खुले रूप में हो रहा है। अगर कुछ दलित राजनीतिक दल भी चुनावों में सफलता के लिए एक रणनीति के तहत जाति चेतना का राजनीतिकरण करते हैं तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। लेकिन जब कुछ हमारे लेखक ‘जाति चेतना का राजनीतिकरण’ करने वाली राजनीतिक पार्टियों के पिछलग्गू बनकर अपने साहित्य में ‘जाति चेतना’ को उभारने लगते हैं तो चिन्ता का विषय हो जाता है।
साहित्य और राजनीति में अंतःसंबंध है। साहित्य राजनीति से प्रभावित होता है और उसे प्रभावित भी करता है परन्तु पूरी तरह से राजनीति का पिछलग्गू नहीं बन जाता है। हमेशा से ही प्रगतिशील और लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले साहित्य ने राजनीति को दिशा देने का काम किया है, न कि उसका पिछलग्गू बना है। लेकिन कुछ नामी-गिरामी साहित्यकार जो दलित साहित्य का बीस-पच्चीस साल तक झंडा उठाए घूम रहे थे, वे आज जाति चेतना का राजनीतिकरण वाली विचारधारा के प्रभाव में अपनी-अपनी जाति मजबूत करने का साहित्यिक नारा लगाकर अंबेडकरवादी विचारधारा को ही बदनाम कर रहे हैं। क्योंकि वे अब भी अपने को अंबेडकरवादी विचारधारा का सिपाही मानकर चले रहे हैं जबकि अंबेडकर की विचारधारा से उनका कोई लेना-देना नहीं है। डॉ. अंबेडकर का नाम जपने से उनका विचारधारात्मक आधार मजबूत नहीं होगा उसके लिए डॉ. अंबेडकर के विचारों को गहराई से समझकर आत्मसात करना होता है। जब विचारधारात्मक आधार कमजोर होता है, आप तब ऐसी ही स्थिति सामने आती है इधर-उधर भटकने लगते हैं-दलित-लेखन में यह वैचारिक भटकाव इस समय अपने चरम पर है। कुछेक ने तो डॉ. अंबेडकर पर ही प्रश्नचिद्द लगाकर खुद को डॉ. अंबेडकर से बड़ा चिंतक मान लेने का भ्रम पाल लिया हैं। डॉ. धर्मवीर, डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ और दलित साहित्य के सर्वेसर्वा डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर आदि साहित्यकार इसी श्रेणी में आते हैं जो अंबेडकर का नाम लेते-लेते इतने निराश हो गए हैं कि अपनी-अपनी जाति को मजबूत करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करने में लगे हैं। दूसरी श्रेणी में, ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चैहान जैसे विद्वान लेखक आते हैं जिन्होंने दलित समाज के दो सम्रदायों को ही एक-दूसरे का दुश्मन मानकर उन्हें आमने-सामने खड़ा कर दिया है। इस तरह पहली श्रेणी के साहित्यकारों की ‘दलित चेतना’ चमारवाद को जन्म देती है तो दूसरी श्रेणी के साहित्यकारों की ‘दलित चेतना’ भंगीवाद में बदल जाती है। यह इन दलित साहित्यकारों की जातीय श्रेष्ठता का ही दम्भ है जो उन्हें अपनी-अपनी जाति को मजबूत करने के लिए मजबूर करता है। एक प्रत्यक्ष तो दूसरा, अप्रत्यक्ष रूप से। ‘जाति चेतना’ से जाति-प्रथा को खत्म नहीं किया जा सकता उसे मजबूत ही किया जा सकता है। जाति चेतना को खत्म करने के लिए डॉ. अंबेडकर की सम्यक् दृष्टि चाहिए। दलित हितैषी होने का दावा करने वाली ग़ैर-दलित पत्रिकाओं के कुछ संपादकों ने दलित-विमर्श के नाम पर इस विवाद को बढ़ाने वाली रचनाएं छापकर उन्हें प्रोत्साहित ही नहीं किया बल्कि दलित-लेखन में जातिवादी गुटबंदी को भी हवा दी है।
वह न अंबेडकरवाद है और न ही अंबेडकरवादी चेतना। अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा से भी उसका कोई सरोकार नहीं है। अंबेडकरवाद जाति की श्रेष्ठता, शुद्धता और पवित्रता के जातिशास्त्र का विनाश करके समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे जनवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर समाजशास्त्रा का नया सिद्धांत प्रतिपादित करता है जिसे अंबेडकरवादी साहित्य समाजशास्त्रा कहा जाता है। इसलिए अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा का आधार अंबेडकरवाद है यानी अंबेडकरवादी चिंतन पर आधारित अंबेडकरवादी समाज-दर्शन है और अंततः अंबेडकरवाद में सम्यक् दृष्टि है। अंबेडकरवाद को यह सम्यक् दृष्टि बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग से मिली है जो बौद्ध धम्म के तीन प्रमुख तत्वों-प्रज्ञा (ज्ञान) शील (सदाचार) तथा समाधि (सजगता) का ही एक अंग है। दार्शनिक स्तर पर देखें तो बुद्ध का दर्शन-पटिच्चसमुप्पाद, अनित्यवाद और अनात्मवाद पर आधारित है जिसमें द्वंद्वात्मक पद्धति के आधार पर समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण करने की क्षमता है। इसलिए बुद्ध के दर्शन को द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शन भी कहा जा सकता है जो कारणता-संबंधी विशेष-सिद्धांत (पटिच्चसमुप्पाद) के चलते वैज्ञानिक-चिंतन के आरम्भिक बीज लिए हुए हैं। बुद्ध के पटिच्चसमुप्पाद सिद्धांत ने ही उनके चिंतन को अनित्यवाद और अनात्मवाद तक पहुंचाया है। इसलिए डॉ. अंबेडकरवाद का दार्शनिक-चिंतन बुद्ध के इसी दार्शनिक-सिद्धांत पर आधारित है। इसलिए अंबेडकरवाद ईश्वर, अवतारवाद, आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म, नियतिवाद और कर्मवाद जैसे अवैज्ञानिक सिद्धांतों को विखंडित कर देता है।
बुद्ध के इस धम्म-चिंतन तक पहुंचने में डॉ. अंबेडकर को 21 साल का लंबा सफर तय करना पड़ा। जब सन्1935 में येवला (जिला नासिक) के विशाल जनसमूह के सामने डॉ. अंबेडकर को हिंदू धर्म त्यागने की घोषणा करनी पड़ी थी जो 14 अक्तूबर 1956 में बौद्ध धम्म की दीक्षा लेने पर पूरी हुई। इस अवसर पर उन्होंने जो बाईस प्रतिज्ञाएं करायीं। वे केवल धार्मिक प्रतिज्ञाएं नहीं थी बल्कि उनमें सामाजिक-आर्थिक और दार्शनिक प्रतिज्ञाएं भी शामिल थी जो अंबेडकरवादी-चिंतन का आधारबिन्दु बनीं। वे समानरूप से दलितों के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन के साथ-साथ साहित्यिक-सृजन पर भी लागू होती है। इसलिए अंबेडकरवादी-चिंतन को ऐतिहासिक विकासक्रम में ही देखा जाना चाहिए। क्योंकि खुद डॉ. अंबेडकर का चिंतन सन् 1916 में जाति-प्रथा की उत्पत्ति, संरचना और विकास से शुरू होकर सन् 1956 में बौद्ध धम्म की दीक्षा तक 46 वर्षों के जीवन-संघर्षों का परिणाम है। इस तरह डॉ. अंबेडकर के चिंतन में एक निरंतरता है जिसे ऐतिहासिक विकासक्रम में देखा जाना चाहिए और जिससे अंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा को मजबूत आधार मिला है। डॉ. अंबेडकर के समाज-दर्शन के आधार पर ही अंबेडकरवादी साहित्य का समाजशास्त्रा विकसित हुआ है। अंबेडकरवादी साहित्य का मुख्य उद्देश्य मानवतावाद की स्थापना करना है जिसमें जाति, लिग, धर्म, वर्ण और समुदाय आदि के आधार पर भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है। उनका मानवतावाद, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे जनवादी और लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों पर आधारित है। उसमें सभी प्रकार के शोषण-उत्पीड़न से मानव समाज की मुक्ति की संकल्पना निहित है और अन्ततः वह जातिविहीन और वर्णविहीन समाज-व्यवस्था की स्थापना के लिए कटिबद्ध है। लेकिन वह जाति-प्रथा के समूल खात्मे के बिना संभव नहीं है। जाति-प्रथा से दलित वर्ग को मुक्ति बौद्ध-धम्म में ही मिल सकती, यही डॉ. अंबेडकर अंतिम निष्कर्ष है।
1. डॉ. अंबेडकर, संपूर्ण वाङ्मय, खंड 1, पृ. 95, जातिप्रथा उन्मूलन
2. वही, पृ. 27, भारत में जातिप्रथा
3. डॉ. अंबेडकर, संपूर्ण वाङ्मय, खंड 6, पृ. 70, हिंदुत्व का दर्शन
4. कार्ल मार्क्स, फ्रे. एंगेल्स, भाव का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम 1857-59, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली 1958 पृ. 31
5. डॉ. अंबेडकर, संपूर्ण वाङ्मय, खंड 1, पृ. 27, भारत में जातिप्रथा
6. वही, पृ. 31 भारत में जातिप्रथा
7. वही, पृ. 67 जातिप्रथा उन्मूलन
8. वही, पृ. 69 जातिप्रथा उत्मूलन

Sunday, May 3, 2009

हमें बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर के संदेश को जरा उदार होकर पढ़ना चाहिए. उनका स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आग्रह केवल दलितों के लिए नहीं है, वह मानव मात्र के लिए है. जातिवाद ने केवल दलितों या अछूतों को ही नुकसान नहीं पहुँचाया है, केवल हिंदुओं को ही नुकसान नहीं पहुँचाया है, बल्कि पूरे भारतीय समाज को नुकसान पहुँचाया है, उसे वैज्ञानिक दृष्टि का विरोधी, अंधविश्वासों का समर्थक, निराशावादी, अपनी दयनीय स्थिति में संतुष्ट रहने वाला इस हिंदुत्ववादी वर्णवादी दृष्टि ने ही बनाया है. यही कारण है कि विज्ञान के क्षेत्र में हमारा लगभग कोई योगदान नहीं है. विज्ञान के शोधार्थियों और प्रोफेसरों द्वारा जन्मपत्रियाँ बनवाना कितना अश्लील है. एक तरफ हम अमरीका की संपन्नता से अभिभूत अमरीकावासी बनने को व्यग्र हैं तो दूसरी ओर वैज्ञानिक दृष्टि से बैर पाल, नाना प्रकार के कथावाचकों को संत बना अपने सिर पर चढ़ा रहे हैं. जबकि दिन-प्रतिदिन उनके कारनामें समाज के सामने आ रहे हैं. 

ऐसी स्थिति में अपने देश को वैज्ञानिक दृष्टि और लोकतांत्रिक चेतना से संपन्न बनाने के लिए आवश्यक है कि भारत रत्‍न बाबासाहेब डॉ. भीम राव अंबेडकर के ग्रंथों को पढ़ें और उनके बताए मार्ग पर चलें. यह मार्ग बहुजन हिताय बहुजन सुखाय है. यह केवल दलितों या अछूतों के लिए नहीं है, बल्कि मानवमात्र के लिए है. डॉ. अंबेडकर के रास्ते में एक बौद्ध धम्म को स्वीकार करना भी है.